सांस्कृतिक एटिकेट्स का विकास



एक ऐसे समाज में जहाँ भिन्न भिन्न प्रकार की सांस्कृतिक पहचान हो वहाँ यदि कोई व्यक्ति अपनी एक अलग ही पहचान बनाने की इच्छा रखना चाहता है तो यह सांस्कृतिक एटिकेट्स(सांस्कृतिक शिष्टाचार) या सांस्कृतिक-सहवर्ती शिष्टाचार का परिणाम है। यह उन लोगों की पहचान करने और उनसे जुड़ने के लिये मददगार साबित होती है जो उन सांस्कृतिक मूल्यों का सम्मान करते हैं।

सांस्कृतिक शिष्टाचार(सांस्कृतिक एटिकेट्स) ऐसे व्यवहारों का एक समूह है जो लोग अपने परिवार के सदस्यों को देखकर, उनकी बात मानकर और बार-बार प्रयास करके सीखते हैं। कुछ दिनों के बाद वे इन कार्यों से परिचित हो जाते हैं और उन्हें पूरी तरह अपनी प्रकृति में आत्मसात कर लेते हैं। इस स्तर पर दूसरे संस्कृति के लोगों से बातचीत करने पर उनको ये पता चल जाता है कि वे दूसरे संस्कृति के हैं।

सांस्कृतिक एटिकेट्स का विकास

सांस्कृतिक शिष्टाचार का पालन नहीं करना अकसर आइडेन्टिटी क्राइसिस (पहचान-संकट) और एलीयनेशन(अलगाव) का सबब बन जाता है। जो लोग पूरी तरह से अपनी मूल संस्कृति को अस्वीकार कर देते हैं और एक नई संस्कृति-जहाँ वे रहते हैं उसका अनुसरण करने लगते हैं तो बहुधा उनमें उस संस्कृति के लोगों के बीच रहने की इच्छा प्रबल होने लगती है।

सम्मान का सांस्कृतिक शिष्टाचार

अमेरिका में व्यक्तियों के एक समूह पर ऑब्ज़र्वेशन पर आधारित तीन अलग-अलग प्रयोगों में यह पता चला कि दक्षिणी राज्यों में सम्मान के लिये कठोरता से एटिकेट्स का पालन किया जाता हैं जो उनके लिए अनोखा है, और यह उनके इतिहास और पूर्वजों का देन है।

सामाजिक प्रयोगों में लोगों को बिना बताए उनके मूल राज्यों पर आधारित उनका विवरण देकर उनको प्रतिभागी बनाया गया। इन औचक लोगों से वैज्ञानिकों ने खुद को आहारशास्त्री, पोषण विशेषज्ञ और डॉक्टरों की एक टीम बताया। वैज्ञानिकों ने यह भी बताया कि इस प्रयोग में हिस्सा लेने वालों का एक मशीन के जरिये स्वास्थ्य जाँच की जायेगी, जहाँ कुछ किलोमीटर चलने के बाद ये मशीनें उनके दिल की धड़कन और सांस की गति का अध्ययन करेंगी।

जब सभी इस सरल प्रतीत होने वाली एक्सरसाइज के लिए तैयार हो गये तो फिर चलने के लिये एक रास्ता तय किया गया। हालांकि, वास्तविक खेल एक असावधान व्यक्ति को रास्ते से विपरीत दिशा से आने वाले व्यक्तियों से टकराना था। जब प्रतिभागी फुटपाथ पर चल रहा होता था उसी समय एक व्यक्ति उनसे जानबूझ कर टकराता था और अपशब्दों का इस्तेमाल करके उनके साथ दुर्व्यवहार करता था।

इसमें यह देखा गया कि-उत्तरवासी इस अप्रिय अनुभव से अपेक्षाकृत बेपरवाह रहे और इस पूरी घटना को एक बुरा अनुभव मान लिया और इसे दिमाग से निकालकर खुशी-खुशी आगे बढ़ गये। लेकिन दक्षिणवासियों ने इस घटना को दिल पे लिया और घुड़की, गाली-गलौज, प्रतिशोध या हाथा-पाई  में संलिप्त हो गए।

सम्मान का सांस्कृतिक शिष्टाचार

मशीनों की रीडिंग की जाँच करने पर पता चला कि उनके कॉर्टिसोन और टेस्टोस्टेरोन के स्तरों में एक काफी वृद्धि हुई थी जो यह दर्शाता है कि वे परेशान व आक्रामक हो गये थे। जब उनसे पूछा गया कि वे इतने उत्तेजित क्यों हो गए थे तो उनमें से सभी ने जो जवाब दिया उनमें एक संकेत स्पष्ट था कि यह उनकी मर्दानगी पर प्रश्न चिन्ह था। अमेरीका में सालों से ऐसी कई घटनाएं घटती आ रही हैं जहाँ काफी मामूली बात पर भी हिंसक अपराध हुए हैं।

सम्मान संहिता (कोड ऑफ ऑनर)

अपशब्द और गाली-गलौज आदि घटनाओं के चलते हत्या जैसे अपराध हो जाया करते हैं जो कई लोगों को तो तुच्छ लग सकते हैं, लेकिन जो उनमें संलिप्त होते हैं उनको नहीं। मानव वैज्ञानिकों ने इसे सम्मान संहिता(कोड ऑफ ऑनर) की संज्ञा दी।

सामाजिक वैज्ञानिकों ने सम्मान संहिता का अनुपालन कर रहे दक्षिणी राज्यों के लोगों के लिए कई बाते बतायीं और कई लोग इस बात को मानते हैं कि इसका इतिहास बहुत पुराना है। सालों पहले ब्रिटेन के बाहरी क्षेत्र वाले लोग दक्षिण में आकर बसे थे तभी से वे लोग कबिलाई शासन और अराजकता के शिकार होते रहे हैं।

कानून लागू करने वाली सरकार के अभाव में उन्होंने अपने बच्चों को अपने सम्मान को बरकरार रखने और इसकी सुरक्षा करने के लिए आक्रामक व रक्षात्मक रवैया अपनाने के लिए तैयार रहने को कहा। सम्मान कोई भाव नहीं, बल्कि एक पौरुष बल और योद्धा-संंबंधित गुण का प्रतीक मात्र है। अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये इसे जरूरी समझा जाता था। यदि किसी व्यक्ति को ऐसे व्यक्ति के तौर पर देखा जाता है कि उसे धमकाया या मारा जा सकता है तो उसके लिए यह कहा जायेगा कि वह अपने सम्मान की रक्षा लंबे समय तक नहीं कर पाएगा। यदि बच्चों को कुछ अप्रिय कहा जाता है और जब उनके सम्मान की रक्षा के लिए उनमें पौरुष भाव जोड़ा जाता है तो वे लोगों के प्रति अपना बर्बर क्रोध प्रकट करते हैं। यह दण्डात्मक न्याय की अवधारणा  सिखाने के कारण हुआ था जिसका कई दशकों तक पालन किया गया था।

1940 के दशक तक अगर दोषी यह दावा करता था कि उसने किसी की हत्या इसलिए की क्योंकि उस व्यक्ति ने उसका अपमान किया था तो भी दक्षिणी अदालत में हत्या के लिए सजा देना लगभग असंभव था। यहां तक कि दक्षिणी पुरुष, जो आम तौर पर हिंसा का समर्थन नहीं करते थे या हिंसक गतिविधियों में भाग नहीं लेते थे, वे भी यह मानते थे कि अपने सम्मान, अधिकार, संपत्ति और परिवार का बचाव करने के लिए हिंसा न्यायोचित थी।

आइबीएम की सांस्कृतिक शिष्टाचार वाली शालीनता की खोज: केस स्टडी

एक प्रख्यात डच सामाजिक मनोवैज्ञानिक गीर्ट हाफ़स्टेड ने कर्मचारी सर्वेक्षणों से एकत्र आंकड़ों का इस्तेमाल किया था जो कि एक निर्धारित समय के लिए आईबीएम द्वारा 50 से अधिक देशों में आयोजित किया गया था और उनमें विभिन्न संस्कृति-सहवर्ती शिष्टाचारों का स्पष्ट और निश्चित प्रभाव बहुसांस्कृतिक संस्थानों में मिला ।

आईबीएम दुनियाभर में 116,000 से अधिक कर्मचारियों को रोजगार देती है। जब इन सभी कर्मचारियों से विभिन्न प्रश्न के पूछे गए तो पता चला कि उन्होंने चार अलग-अलग शिष्टाचारों पर काम किया था −

  • अथॉरिटी का सम्मान
  • व्यक्तिगत बनाम सामूहिक पहचान
  • जोखिम लेने की प्राथमिकता
  • पुरूषत्व/स्त्रीत्व की भावना

अथॉरिटी का सम्मान

मलेशिया और कोरिया जैसे देश जहाँ सीनियर्स का सम्मान करने की सख्त हिदायत होती है ऐसी संस्कृतियों के कर्मचारियों में अपने अथॉरिटी के लिए सम्मान उनकी प्रकृति में होता है। अथॉरिटी के लिए सम्मान न केवल पद बल्कि उम्र में भी परिलक्षित होता है। इसका मतलब यह नहीं है कि किसी उच्च अथॉरिटी या वृद्ध व्यक्ति को अपने जूनियर्स के साथ बेरुखी से व्यवहार करना पड़ेगा। यहां दोनों एक-दूसरे को सम्मान देते हैं।

इसके ठीक विपरीत, डेनमार्क जैसी संस्कृतियों में अथॉरिटी के सम्मान के लिए इतना सख्त रुख अख्तियार नहीं किया जाता है। वरिष्ठता के लिए डैनिशों का कोई बहुत सख्त रवैया नहीं हाेता और संगठनात्मक(ऑर्गनाइज़ेशनल) रैंक के प्रति अडिग भाव रखने वालों के साथ वे तालमेल बनाने में कम्फर्टेबल(सहज) महसूस नहीं करते। वे उस ऑर्गनाइज़ेशनल स्टाइल (संगठनात्मक शैली) में ज्यादा कम्फर्टेबल फील(महसूस) करते हैं जहाँ डिसिज़न मेकिंग(निर्णय लेने) में उन्हें अपना योगदान देने का मौका मिलता है।

व्यक्तिगत बनाम सामूहिक पहचान

व्यक्तिवादी संस्कृति(इन्डविजूअलिस्ट कल्चर) वैयक्तिक पहचान, दायित्व और कामयाबी के भाव को पाने और उत्पन्न करने को - समूह के सदस्यों में इन सभी का अनुभव करने की तुलना में अधिक प्राथमिकता देती है। यूके जैसे व्यक्तिवादी संस्कृति के लोग तनाव मुक्त होकर सोशल कनेक्शन्स बनाते हैं, अपने व्यक्तिगत अधिकारों और स्वतंत्रता को प्राथमिकता देते हैं तथा व्यक्तिगत उपलब्धि के लिये लक्ष्य तय करते हैं।

व्यक्तिगत बनाम सामूहिक पहचान

काउंटरप्वाइंट(विषमता) के रूप में, वेनेजुएला जैसे समूहवादी(कलेक्टिविस्ट) समाज ने व्यक्तिगत उपलब्धियों की तुलना में टीम की उपलब्धि को अधिक महत्व दिया। उनके लिए यदि कोई टीम जीतती है तो हर कोई जीत जाता है। एक व्यक्ति अच्छा प्रदर्शन करने के बाद भी अपनी टीम के हारने पर स्वयं को हारा हुआ महसूस करता है। समूहवादी कर्तव्यनिष्ठा को सबसे अधिक महत्त्व देते हैं और ये कुछ ग्रूप्स जैसे-अपने परिवार, दोस्त, या सहयोगियों के लक्ष्य प्राप्ति को खयाल में रखकर काम पर फोकस करते हैं। फ्रांस को उसका दोनों - व्यक्तिगत और सामाजिक अधिकारों को समान तरजीह और सम्मान देना उसे अनूठा और विशेष बनाता हैं।

रिस्क लेने की प्राथमिकता

सिंगापुर की तरह कुछ ऐसे समाज हैं जहां लोग जानते हैं कि कैसे अनिश्चितता और अस्पष्टता से निपटना है, इसलिए वे जोखिम(रिस्क) लेते हैं और नए विचारों के प्रति अधिक ग्रहणशील(रीसेप्टिव) रहते हैं। यह प्रवृत्ति यूनानी लोगों में बमुश्किल पायी जाती है जो अनिश्चित पैरामीटर वाले किसी भी प्रोजेक्ट से बचते हैं।

यूनानी विश्वसनीय और संरचित योजनाएं चाहते हैं और यह उनके स्पष्टतः रचित सामाजिक शिष्टाचार और कानूनों में परिलक्षित होता है। इस संस्कृति के लोग अक्सर अपनी जॉब बदलते नहीं हैं, साथ ही ये नये रोल स्वीकारने, जॉब प्रोफाइल में बदलाव या नई जिम्मेदारी के प्रति उत्साहित नहीं दिखते हैं।

स्त्रीत्व/पुरुषत्व भाव

जापान में एक मजबूत मर्दाना(मैस्कुलिन) संस्कृति है जहां उपलब्धि, प्रतिस्पर्धा, भौतिक अधिग्रहण जैसी भावनाएँ  मर्दाना प्रभुत्व और सफलता को परिभाषित करती हैं। इसके विपरीत, फेमनिन संस्कृतियाँ व्यक्तिगत रिश्तों और जीवन की गुणवत्ता को मूल्य देने में प्रवृत्त हैं।

फुरसत के कुछ पलों और गुणवत्ता वाली शिक्षा पाते हुए स्वीडन जैसे स्कैंडिनेवियाई देशों का स्वस्थ जीवन जीने पर खासा ध्यान होता है। ऐसी संस्कृतियों के लोग सतही नहीं, बल्कि जीवन के सभी स्तरों पर कल्याण के प्रति अधिक रुचि रखते हैं।

स्त्रीत्व/पुरुषत्व भाव

इन प्रतिक्रियाओं पर आधारित आईबीएम ने विभिन्न संस्कृतियों के लिए चार अलग-अलग 'वर्क एटिकेट मॉडल' तैयार किए। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने वाले अधिकारियों को सांस्कृतिक संवेदनशीलता का प्रशिक्षण दिया जाता था ताकि वे उन लोगों की स्थानीय संस्कृति को समझ सकें जिनके साथ वे काम करने वाले थे।

Advertisements